सूचना, संचार और मनोरंजन के नए साधनों ने व्यक्ति को नितांत एकांतप्रिय, घरघुसरा एवं आत्मकेंद्रित बनाकर उसे तनाव, अवसाद एवं कुंठाग्रस्त तो कर ही दिया था. रही-सही कसर कोरोना कालखंड में सोशल डिस्टेंसिंग और दो गज़ की दूरी की संवैधानिक मान्यता ने पूरी कर दी है. जबकि वह स्वभावतः सामाजिक प्राणी है और समूह में रहना, विचरना और कर्म करना उसकी प्रकृति है. यह सामूहिकता और सामाजिकता ही लोकसंस्कृति की आत्मा है और इसीकी रचनात्मक प्रतिछवियां रामलीला, रासलीला, नौटंकी और लोकोत्सवों में देखने को मिलती है. छत्तीसगढ़ का रावत नाच भी लोकसहभगिता का ऐसा ही अदभुत वार्षिक आयोजन है.
1978 में शुरू हुआ यह लोकोत्सव अपने जीवन के 41 वर्ष पूरे कर चुका है. मज़े की बात है की इसे किसी सरकार या मल्टीनेशनल कंपनी ने न ही स्पांसर किया है और न ही किसी प्रभावशाली संस्था को प्रायोजन को स्वीकृति ही दी गयी है. सबकुछ स्वस्फुर्त और मिलजुलकर किया जानेवाला सामूहिक आयोजन। छत्तीसगढ़ का बिलासपुर इस समारोह का शुरू से ही आयोजन स्थल रहा है. प्रबोधिनी एकादशी से शुरू होने वाला ये आयोजन 15 दिनों तक चलता है. इस अवधि में राउत नर्तकों की टोलियां प्रदेश के गलियों, मोहल्लों और टोलों में घूम-घूमकर अपनी नृत्यकला का प्रदर्शन करती हैं. इसका समापन बिलासपुर के शनिचरी बाजार में अरपा नदी के किनारे होता है और हज़ारों उत्सुक ऑंखें इस आयोजन की गवाह होती हैं.
रावत नर्तकों की वेश-भूषा भी अदभुत और लोक के अनूठे सामंजस्य की बानगी प्रस्तुत करती हैं. ये सिर पर धोती की पगड़ी (पागा) धारण करते हैं जो रंगीन कागज़ के फूलों की माला से गोलाकार कसी जाती हैं. इस रंगीन पगड़ी में ये मोर की कलंगी लगते हैं और इनका वक्षस्थल रंग-बिरंगे कपड़ों के बने सलूके से ढंका होता है. इसके ऊपर जाकेटनुमा पोशाक (पेटी) होती है जिस पर कौड़ियां टंकी होती है. रोशनी में इस पोशाक की बानगी देखते ही बनती है. दोनों बांहों में कौड़ियों का बहंकर बांधा जाता है. कमर के नीचे रंगीन छींट से बना चोलना पहना जाता है जिसकी लंबाई घुटनों तक रहती है. कमर में बड़े-बड़े घुंघरु वाली पति बाँधी जाती है जिसे जलाजल कहा जाता है. नाचते वक़्त ये घुंघरु बड़ी मीठी ध्वनि निकालते हैं. वृन्दावन की पीली मिट्टी रामरज से चेहरे को रंगकर जब ये अल्हड़ चाल से चलते हैं तो इनकी चाल देखने लायक होती है. आँखों में काजल और माथे पर चन्दन का टीका साथ में दोनों गालों और ठोड़ी पर काजल की बिंदिया लगाकर ये अपने चेहरे को ठेंठ पारम्परिक तरीके से आकर्षक बनाते हैं. एक हाथ में लोहे या पीतल की ढाल और दूसरे में तेंदू की लाठी लेकर अपने दल के साथ निकलने पर लगता है मानो योद्धा रणभूमि की ओर कुच कर रहे हैं.
नर्तकों के इस दल में लोकवादकों का एक समूह भी भी शामिल रहता है, ये मोहरी, टिमकी, डफरा और निशान जैसे लोकवाद्य बजाते हैं. रावत नाच में नृत्य का काम अधिकतर यादव लोग करते हैं और वादन का काम गंधर्व करते हैं. इसमें एक ऐसा पुरुष भी होता है जो स्त्री वेश धारण किये रहता है. इसे परी कहा जाता है. गायक, वादक, नर्तक मिलकर 50 लोगों का एक दल तैयार होता है, जिसमे सभी पुरुष होते हैं.
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